Friday, 24 January 2014

हम



प. बंगाल के बीरभूमि जिले की वीभत्स घटना ने के बार फिर भारतीय पुरुष प्रधान समाज की उस मानसिकता को, जो ये मानती है की महिला एक मानव नहीं बल्कि एक संपत्ति है और जिसे बेचा, खरीदा, और बदला जा सकता है, को प्रदर्शित किया है| भारतीय समाज के प्रगतिशील होने पर बहस हो सकती है और होती भी रही है परंतु ये घटना उन सारी बहसो को पूर्ण विराम देती है| यह घटना इसी बात को परिलक्षित करती है की हम अब भी हमारी मध्य-युगीन मानसिकता से बाहर नहीं आ पाए हैं| शर्म, घृणा, निंदा, विरोध ये इस घटना के प्रतिकार में छोटे हैं| एक अजीब सी पीड़ा मन और मस्तिष्क को परेशान करती है| भारत के इक्कीसवीं सदी में प्रवेश, स्वर्णिम युग के आगमन, भारत उदय, और भारत निर्माण, ये तमाम नारे अब अर्थहीन हैं क्यूँकी हम तो अब भी पाषाण-युग की मानसिकता से आगे नहीं बड़े हैं| संसाधनों और सुविधाओं की वृद्धि से कभी भी किसी समाज के विकास का आकलन नहीं किया जा सकता, किसी समाज के विकास का सही मापदंड उस समाज की वह मानसिकता होती है जो उस व्यक्ति के उस रवैये, उस सोच से प्रदर्शित होती है जो वह अपने व अपने स्वजनो के अतिरिक्त अन्य जीवों और मानवों के प्रति रखता है| इस घटना की पृष्ठभूमि, इसका परिप्रेक्ष्य और उससे उपजा एक वीभत्स निर्णय, जिसमें एक स्त्री के सम्मान ही नहीं उसकी आत्मा की भी कई बार, कई तरह से हत्या हुई, इसी बात को बताते हैं की हम अब भी उसी मध्य युगीन सोच से उपर नहीं उठ पाए हैं|
यह रोशनी है हक़ीकत में एक छल लोगों,
की जैसे जल में झलकता हुआ महल लोगों!
दरख़्त है तो परिंदे नज़र नहीं आते,
जो मुस्तहक़ है वही हक़ से बेदखल लोगों!  (दुष्यंत कुमार)

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